अयोध्या के महान सम्राट | चार पुत्रों के पिता | पुत्रमोह के प्रतीक | आदर्श राजा
राजा दशरथ अयोध्या के महान सम्राट थे और भगवान राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न के पिता थे। उनके नाम का अर्थ है "दस रथों की शक्ति" - जो यह दर्शाता है कि वे सभी दिशाओं में एक साथ युद्ध करने में सक्षम थे।
राजा दशरथ वैदिक परम्परा के प्रतिष्ठित शासक थे। धर्मनिष्ठ और न्यायप्रिय राजा के रूप में भी प्रसिद्ध हैं, वे अपने पुत्र राम के वनवास के दुःख को सहन नहीं कर सके और अपनी प्राण त्याग दीं।
राजा अज के पुत्र दशरथ एक बहुत ही वीर योद्धा थे। वे अपने राज्य कौशल, अयोध्या की रक्षा करते थे। दशरथ अच्छे शासक बने और उन्होंने अपने साम्राज्य को समृद्ध और शक्तिशाली बनाया। उन्हें युद्ध में प्रभुत्व प्राप्त था।
राजा दशरथ को दस दिशा के युद्ध में लड़ने की शक्ति प्राप्त थी। धर्मनिष्ठ राजा थे और न्यायप्रिय शासक के रूप में प्रसिद्ध हुए। उनका साम्राज्य में सभी प्रजा उनसे प्रेम और आदर करती थी और उनकी सेवा में तत्पर थी।
राजा दशरथ ने तीन विवाह किए - कौशल्या, कैकेयी और सुमित्रा। कौशल्या कोशल राजा की राजकुमारी थीं और प्रथम पटरानी थीं। कैकेयी केकय देश की राजकुमारी थीं और दशरथ की प्रिय पत्नी थीं। सुमित्रा तृतीय पटरानी थीं।
राजा दशरथ अपनी पत्नियों से बहुत प्रेम करते थे, लेकिन कैकेयी उनकी सबसे प्रिय थीं क्योंकि कभी युद्ध में उन्होंने राजा को बचाया था, जिसके बदले में राजा ने उन्हें दो वरदान का वचन दिया।
कई वर्षों के बाद भी राजा को संतान न होने से राजा दशरथ बहुत दुखी थे। महर्षि वशिष्ठ की सलाह पर उन्होंने पुत्रकामेष्टि यज्ञ करवाया। यज्ञ की समाप्ति के बाद अग्निदेव ने एक दिव्य खीर पात्र दिया जिसे राजा ने अपनी रानियों को खिलाया।
इस यज्ञ के फल स्वरूप चार महान पुत्रों की प्राप्ति हुई - कौशल्या से राम, कैकेयी से भरत और सुमित्रा से लक्ष्मण और शत्रुघ्न। इन चार पुत्रों की जन्म से राजा सुखी हुए।
राजा दशरथ ने अपने चारों पुत्रों का पालन-पोषण बड़े प्यार और देखभाल से किया। महर्षि वशिष्ठ की देख-रेख में चारों पुत्रों ने धर्म, शास्त्र, अस्त्र-शस्त्र, युद्धनीति और शासनकला का ज्ञान प्राप्त किया।
विशेष रूप से राम से वे अत्यधिक प्रेम करते थे क्योंकि राम सभी गुणों में - साहस, बुद्धिमत्ता, धर्मनिष्ठा और शील शक्ति से परिपूर्ण थे। राजा दशरथ सदा सोचते थे कि राम ही उनका उत्तराधिकारी बनेंगे।
जब राम महर्षि विश्वामित्र के साथ मिथिला सीता स्वयंवर में गए, तो राजा दशरथ अत्यंत प्रसन्न हुए। शिव-धनुष तोड़ने, राम-लक्ष्मण और भरत-शत्रुघ्न के दो जोड़ों विवाह हुए।
यह सबसे शुभ दिन था जब अयोध्या वापस आने पर प्रजा ने राम का भव्य स्वागत किया। दशरथ की प्रसन्नता का ठिकाना न रहा और उन्होंने सोचा कि अब राम को राज्य सौंप दें और स्वयं को वन में जाकर शांति के समय का आनंद लें।
राम के राज्याभिषेक की तैयारी के दौरान, रानी कैकेयी ने मंथरा दासी के उकसावे पर दो वरदान माँगे - भरत को राजा बनाना और राम को 14 वर्षों के वनवास पर भेजना। यह सुनकर राजा टूट गए।
दशरथ ने कैकेयी को समझाने का प्रयास किया, लेकिन वे अड़ी रहीं। धर्म और वचन पालन के कारण दशरथ को विवश होकर राम से वनवास का आदेश देना पड़ा। यद्यपि दशरथ का हृदय फटने लगा, फिर भी उन्हें अपना वचन निभाना पड़ा।
"पुत्र के बिना जीवित नहीं रह सकता लेकिन वचन पालन धर्म है" - यही दशरथ की स्थिति थी जो उन्हें तोड़ दिया
जब राम, सीता और लक्ष्मण वनवास के लिए चले गए, तो राजा दशरथ अत्यंत दुखी हो गए। रात-दिन राम की याद में रोते रहते और उनके बिना जीने का कोई अर्थ नहीं लगता था।
वियोग काल राजा के लिए असह्य था। वृद्ध अवस्था में पुत्र का बिछड़ना उनकी मृत्यु तक का कारण बना। वे हर पल राम-राम की आवाज़ लेते रहते और उन सब की याद में भूख-प्यास भूल गए।
राम के वनवास के केवल छह दिन बाद, राजा दशरथ अपने प्राण त्याग दिए। अंतिम समय में "राम! राम!" की पुकार लगाते हुए उनका देहांत हुआ। प्रजा सारे अयोध्या में शोक छा गया और सभी राम और दशरथ के लिए रोए।
दशरथ के सत्यनिष्ठा की सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है। यद्यपि कैकेयी की मांग दुःखदायक थी, तब भी उन्होंने अपना वचन पूरा करके सत्यनिष्ठा प्रदर्शित किया।
दशरथ एक धर्मनिष्ठ और न्यायप्रिय राजा थे। उनका साम्राज्य समृद्ध था। यद्यपि वे अपने पुत्र को खोना नहीं चाहते थे लेकिन धर्म की रक्षा के लिए विवश हुए।
राजा दशरथ अपने पुत्रों से बहुत प्रेम करते थे। विशेष रूप से राम से वे अत्यधिक प्रेम करते थे। राम के वनवास से उन्हें ऐसा आघात लगा कि वे जीवन नहीं बचा सके।
दशरथ एक अप्रतिम योद्धा थे और दस दिशाओं में एक साथ युद्ध करने में सक्षम थे। वे देवताओं के युद्ध में भी सहायता करते थे।
दशरथ एक धार्मिक राजा थे और धर्म के मार्ग पर चलते थे। यज्ञ करवाना और ब्राह्मणों की सेवा करना, उनके लिए सर्वोच्च कर्तव्य था।
राजा दशरथ अपने पुत्रों का पालन-पोषण बड़े प्रेम करते थे, लेकिन सत्य और धर्म पालन के लिए अपने प्रिय पुत्र का त्याग किया।
दशरथ से सीखते हैं कि वचन की रक्षा सर्वोपरि है। चाहे वचन का पालन कितना भी कष्टकारी हो, लेकिन उसे निभाना परम धर्म है।
हम राजा के जीवन से देखते हैं कि पुत्रमोह प्राकृतिक है लेकिन धर्म और कर्तव्य को पुत्रमोह से ऊपर रखना चाहिए।
धर्मनिष्ठा से जीवन जीना अत्यावश्यक है। राजा की जीवन से सीखते हैं कि धर्मपालन चाहे कितना भी कष्टपूर्ण क्यों न हो, करना ही होगा।
सच्चा प्रेम सदा त्याग की मांग करता है। हम राजा से सीखते हैं कि प्रेम और कर्तव्य के बीच की दिलेमा कैसे संभाली जाती है।
दशरथ की कहानी हमें सिखाती है कि वचन देते समय सावधान रहना चाहिए क्योंकि वचनबद्धता का मूल्य बहुत बड़ा है।
हम राजा दशरथ के जीवन से सीखते हैं कि माता-पिता को अपने संतानों को प्यार करना चाहिए लेकिन धर्म और कर्तव्य सर्वोपरि हैं।
राजा दशरथ और परिवार के महर्षि भारद्वाज से गहरा संबंध था। जब राम, सीता और लक्ष्मण वनवास के लिए निकले, तो सबसे पहले महर्षि भारद्वाज के आश्रम में रुके और उनका आशीर्वाद लिया।
राजा दशरथ भी राम के वनवास से पहले कई बार महर्षि आश्रम गए थे। दशरथ की वंश और कुलगुरु परम्परा भारद्वाज ऋषियों से जुड़ी है जो वैदिक ज्ञान और धर्मनिष्ठा को सर्वोपरि मानते थे।
राजा दशरथ की कहानी है, महर्षि भारद्वाज का गुरु मार्गदर्शन हमेशा था। राजा के धर्मपालन और वचन पालन की शिक्षा भी कुलगुरु परम्परा से ही आई थी, जो भारद्वाज संप्रदाय का मूलभूत सिद्धांत है।
राजा दशरथ एक आदर्श राजा, प्रेमी पिता और धर्मपालक शासक के रूप में याद किए जाते हैं। पुत्रमोह और धर्म के बीच की दिलेमा में भी उन्होंने धर्म को चुना और अपने जीवन की बलिदान दी। उनकी कहानी हमें त्याग और सत्यनिष्ठा का सबक सिखाती है।
राजा दशरथ प्रत्येक पिता के लिए एक प्रेरणा हैं। यद्यपि वे अपने पुत्रों को बहुत प्यार करते थे, लेकिन धर्म की रक्षा के लिए उन्हें सबसे कठिन निर्णय लेना पड़ा। यह दिखाता है कि धर्म पर चलना मुश्किल है लेकिन यही सच्चा मार्ग है।
उनके आदर्शों का पालन कर धर्म और सत्य मार्ग में चलें