त्याग के आदर्श | पादुका राज्य के संचालक | नंदिग्राम में 14 वर्ष तपस्या | आदर्श भ्राता
भरत राजा दशरथ और रानी कैकेयी के पुत्र थे और राम, लक्ष्मण और शत्रुघ्न के भाई थे। यद्यपि रानी कैकेयी ने उनके लिए राज्य माँगा था, लेकिन भरत ने राज्य लेने से मना कर दिया और राम को ही राजा माना।
भरत का चरित्र धर्म और त्याग का अद्भुत संगम है। यद्यपि राज्य उनके लिए था, फिर भी उन्होंने राज्य को ठुकरा दिया और राम की सेवा में 14 वर्ष तक नंदीग्राम में तपस्वी जीवन बिताया। भरत की राम प्रेम और त्याग भारतीय संस्कृति में अमर हैं।
भरत का जन्म कैकेयी के गर्भ से हुआ था। पुत्रकामेष्टि यज्ञ के फलस्वरूप प्रसाद ग्रहण करने से चार पुत्रों का जन्म हुआ। भरत रानी कैकेयी के प्रिय पुत्र थे, जिनसे दशरथ भी बहुत प्रेम करते थे।
जन्म से ही भरत भी राम के प्रति अगाध प्रेम रखते थे। चारों भाईयों में राम-भरत और लक्ष्मण-शत्रुघ्न की जोड़ियाँ थीं लेकिन सभी एक-दूसरे से प्रेम करते थे।
भरत ने भी महर्षि वशिष्ठ से सभी शास्त्र और अस्त्र-शस्त्र विद्या की शिक्षा प्राप्त की।
जब राम ने स्वयंवर में सीता से विवाह किया, तो भरत का विवाह मांडवी से हुआ। दोनों मिथिला नरेश जनक की पुत्रियाँ थीं - सीता और मांडवी।
राम के राज्याभिषेक के समय भरत केकय देश (अपनी माता के पिता का राज्य) में थे। जब वे वापस आए तब उन्हें पता चला कि राम को वनवास हो गया है और पिता दशरथ का देहांत हो गया है।
भरत अत्यंत दुखी हुए और अपनी माता कैकेयी से बहुत क्रोधित हुए। उन्होंने राजा दशरथ के अंतिम संस्कार किए और फिर राम को वापस लाने का निर्णय लिया।
भरत ने राज्य को लेने से इनकार कर दिया। उन्होंने अयोध्या की पूरी सेना लेकर चित्रकूट गए जहाँ राम थे।
भरत ने कहा - "राम भैया! कृपया वापस चलें और राज्य संभालें। मैं केवल आपके सेवक हूँ और यह राज्य आपका है।"
भरत ने अयोध्या से पूरी सेना और प्रजा लेकर चित्रकूट की यात्रा की, ताकि वे राम को समझा सकें। वे रास्ते में महर्षि भारद्वाज के आश्रम में रुके।
महर्षि भारद्वाज ने भरत और पूरी सेना का भव्य स्वागत किया। वे राम के बारे में भरत को बताया और उन्हें धैर्य रखने की सलाह दी। भरत ने महर्षि से राम को समझाने की प्रार्थना की लेकिन महर्षि ने कहा कि राम धर्मपालन करेंगे।
जब राम ने राज्य लेने से मना कर दिया, तो भरत ने राम की पादुका (खड़ाऊँ) मांगी और कहा - "राम भैया! मैं आपकी पादुका को सिंहासन पर रखूंगा और आपकी सेवक बनकर राज्य चलाऊँगा। राज्य आपका है, मैं केवल आपका प्रतिनिधि हूँ।"
भरत ने राम की पादुका लेकर अयोध्या से बाहर नंदीग्राम में रहने लगे। वे तपस्वी वेश में 14 वर्षों तक नंदीग्राम में रहे - कुश की चटाई पर सोते, मोटा वस्त्र पहनते और एक तपस्वी की तरह जीवन व्यतीत किया।
"भरत का यह त्याग और पादुका राज्य भारतीय इतिहास में अद्वितीय है। राजा होते हुए भी राम की सेवा में तपस्वी बन गए।"
भरत ने राज्य का त्याग कर दिया। 14 वर्षों तक तपस्वी जीवन जीकर राम की प्रतीक्षा की।
भरत ने राम से असीम प्रेम किया। राज्य की लालसा नहीं थी, केवल राम की सेवा करना चाहते थे।
भरत ने धर्म का पालन किया और राज्य को धर्मपूर्वक चलाया। उन्होंने कभी अधर्म नहीं किया।
14 वर्षों तक राज्य की जिम्मेदारी संभालने के बावजूद भरत ने स्वयं को राजा नहीं माना।
भरत ने अयोध्या राज्य का न्यायपूर्वक संचालन किया - राम, न्याय और प्रजा कल्याण को ही सर्वोपरि माना।
माता ने गलती की फिर भी भरत ने उनका सम्मान किया। पिता राजा दशरथ को सम्मान दिया।
भरत से सीखते हैं कि राज्य या शक्ति से बड़ा भाई का प्रेम और सम्मान है।
सच्चा त्याग निःस्वार्थ होता है। भरत ने अपने हित की परवाह नहीं की बल्कि राम की सेवा को चुना।
धर्मनिष्ठा से जीना आवश्यक है। भरत ने जीवन भर धर्म का पालन किया।
माता की गलती के लिए भी भरत जिम्मेदार नहीं हैं। हर व्यक्ति अपने कर्मों के लिए स्वयं उत्तरदायी है।
भरत ने 14 वर्ष अयोध्या को राम की सेवा में चलाया। यही वास्तविक सेवा भाव है।
शक्तिशाली होते हुए भी भरत ने विनम्रता दिखाई। अहंकार उनमें कभी नहीं था।
जब भरत राम को वापस लाने के लिए चित्रकूट गए थे, तो वे पहले अयोध्या से प्रयाग में महर्षि भारद्वाज के आश्रम में रुके और महर्षि से राम के बारे में जानकारी ली।
महर्षि भारद्वाज ने भरत के राम प्रेम की प्रशंसा की और उन्हें धर्म पालन का महत्व समझाया। महर्षि ने भरत को यह भी कहा कि राम धर्म पर चलेंगे और भरत को भी धर्मपालन करना होगा। भरत ने महर्षि के मार्गदर्शन को स्वीकार किया और चित्रकूट गए।
महर्षि भारद्वाज ने भरत को कहा - "त्यागराज भरत! तुम्हारा धर्मपालन श्रीराम-भक्ति का सर्वोच्च उदाहरण है।"
भरत का त्याग भारतीय इतिहास में आदर्श और अद्वितीय है। पादुका राज्य आज भी त्याग, नि:स्वार्थता और भ्रातृप्रेम का प्रतीक है। "राम भक्ति" और "पादुका राज्य" के नाम से यह आज भी प्रसिद्ध है।
जब तक "भरत" का नाम है तब तक त्याग और धर्म की कहानी अमर रहेगी।
त्याग और निःस्वार्थ सेवा के मार्ग पर चलकर भरत के आदर्श को अपनाएं