जानकी | वैदेही | मैथिलीनन्दनी | भूमिपुत्री | राम की अर्धांगिनी | पवित्रता और त्याग की देवी
माता सीता भारतीय संस्कृति में आदर्श नारी, पवित्रता, साहस और त्याग की प्रतीक हैं। वे भगवान राम की धर्मपत्नी थीं और संपूर्ण राम कथा में उनका स्थान केंद्रीय है। माता सीता विष्णु अवतार लक्ष्मी का स्वरूप मानी जाती हैं।
माता सीता का जन्म भूमि से हुआ था। वे एक कन्या के रूप में राजा जनक को हल जोतते समय मिलीं। इसलिए उन्हें "भूमिपुत्री" (भूमि की पुत्री) या "भूमिजा" (भूमि से उत्पन्न) कहा जाता है।
माता सीता ने भगवान राम के साथ सुख-दुःख सभी में साथ दिया। राम जब 14 वर्ष के वनवास पर गए तो माता सीता भी राम के साथ गईं, यद्यपि राम ने उन्हें रोकने का प्रयास किया लेकिन सीता, पत्नी और सहधर्मिणी का कर्तव्य निभाने वन गईं।
माता सीता का जन्म मिथिला में राजा जनक के खेत में हुआ था। जब राजा जनक हल जोत रहे थे, तब भूमि से एक कन्या प्रकट हुई जिसे जनक ने अपनी पुत्री के रूप में स्वीकार किया और उसका नाम सीता रखा।
भूमि देवी के इस अवतार की कथा बहुत पवित्र है। सीता को "सीत" (भूमि की रेखा या हल की रेखा से) नाम मिला। इस कारण सीता को "भूमिजा" या "भूमिपुत्री" भी कहा जाता है।
माता सीता का पालन-पोषण मिथिला के राजमहल में हुआ। राजा जनक एक विद्वान और दार्शनिक थे, इसलिए "जानकी" (जनक की पुत्री) नाम प्रसिद्ध हुआ। मिथिला देश को "विदेह" भी कहते थे इसलिए सीता को "वैदेही" भी कहा जाता है।
बचपन से ही माता सीता अत्यंत बुद्धिमान, सुंदरता और नैतिक गुणों से परिपूर्ण थीं। जनक की सभा में ऋषि-मुनियों के साथ वे धर्म चर्चा में भाग लेती थीं। यह वह युग था जब स्त्रियों को भी संस्कारित शिक्षा दी जाती थी, जिसका लाभ सीता को मिला।
राजा जनक ने सीता के विवाह के लिए स्वयंवर का आयोजन किया और शर्त थी कि जो भी भगवान शिव के धनुष को तोड़ेगा, उसी के साथ सीता का विवाह होगा। शिव-धनुष अत्यंत भारी था और कोई भी उसे उठा नहीं सका।
महर्षि विश्वामित्र के साथ भगवान राम और लक्ष्मण मिथिला आए। स्वयंवर में राम ने धनुष को सहज ही उठाकर प्रत्यंचा चढ़ाते समय तोड़ दिया और सीता से विवाह हुआ।
"राम और सीता का विवाह दिव्य था, क्योंकि दोनों एक-दूसरे के लिए ही बने थे"
जब राम को 14 वर्ष का वनवास हुआ, तो माता सीता भी राम के साथ जाने का निर्णय लिया। यद्यपि राम ने सीता को रोकने का प्रयास किया और कहा कि वन में कष्ट होगा, लेकिन सीता ने कहा - "पति के बिना जीवन नहीं है।"
सीता ने कहा - "भैया राम जहाँ हैं, वहीं मेरा घर है। राजमहल में रहकर भी अगर आप नहीं हैं तो मेरे लिए वह नरक समान है। लेकिन वन में भी अगर आप साथ हैं तो वह स्वर्ग है।"
रावण ने छल करके सीता, माता को जब राम और लक्ष्मण स्वर्ण मृग का पीछा करने गए थे। रावण ने साधु का वेश धारण कर सीता को लक्ष्मण रेखा से बाहर बुलाया और फिर सीता का हरण कर लिया।
सीता हरण रामायण की सबसे दुःखद घटना थी। जटायु जैसे पक्षी-वीर ने सीता को बचाने का प्रयास किया, लेकिन रावण अत्यंत शक्तिशाली था। जटायु वीरगति को प्राप्त हुए और सीता को लंका ले जाया गया।
लंका युद्ध में राम की विजय के बाद, लोक-लाज को ध्यान में रखते हुए राम ने सीता से अग्नि परीक्षा मांगी। यद्यपि मन से राम सीता की पवित्रता पर विश्वास करते थे लेकिन समाज के लिए प्रमाण देना आवश्यक था।
सीता निर्भीक होकर अग्नि में प्रवेश कीं। अग्निदेव ने सीता को सुरक्षित और अछूत बाहर निकाला। सीता की पवित्रता का प्रमाण मिला और राम ने सीता को स्वीकार किया।
सीता अयोध्या में राम के साथ लौटीं और राम के राज्याभिषेक में भाग लिया। रामराज्य में सीता ने एक आदर्श रानी की भूमिका निभाई और प्रजा कल्याण में राम का साथ दिया।
कुछ काल बाद सीता गर्भवती हुईं लेकिन लोक निंदा के कारण राम ने सीता को वन भेज दिया। यह निर्णय राम के लिए अत्यंत कष्टदायक था लेकिन राजधर्म के लिए यह आवश्यक था।
वन में फिर से, लव-कुश के जन्म के समय माता सीता ने महान तपस्वी वाल्मीकि के आश्रम में शरण ली। वहाँ सीता ने लव और कुश नामक दो पुत्रों को जन्म दिया।
वाल्मीकि ऋषि ने दोनों पुत्रों को वैदिक ज्ञान, अस्त्र-शस्त्र विद्या और रामायण का गान सिखाया। लव-कुश ने बाद में अयोध्या जाकर राम के यज्ञ अश्व को पकड़ा और राम से युद्ध किया।
अंत में, माता सीता ने अपना सत्य प्रमाण देने के लिए भूमि से प्रार्थना की और वे पुनः भूमि में समा गईं। यह सीता की अंतिम लीला थी और भगवान राम अत्यंत दुःखी हुए।
माता सीता पवित्रता की सर्वोच्च प्रतीक हैं। अग्नि परीक्षा में भी पवित्र रहीं और कभी भी अधर्म का मार्ग नहीं अपनाया।
पत्नी धर्म, पति के प्रति सम्मान और प्रेम - सीता ने पत्नीत्व को आदर्श बनाया।
रावण की कैद में भी सीता ने साहस नहीं खोया। हर परिस्थिति में सीता ने धैर्य और साहस दिखाया।
लंका की कैद, अग्नि-परीक्षा और पुनः वनवास - सभी में सीता ने अद्भुत धैर्य दिखाया।
बार-बार परीक्षा लेने पर भी सीता ने स्वाभिमान नहीं खोया और अंत में भूमि में समा गईं।
लव और कुश को अकेले पालना - सीता ने मातृत्व, संस्कार और शिक्षा का आदर्श दिखाया।
सीता से सीखते हैं कि पत्नी का पति के प्रति प्रेम निःस्वार्थ है। पति का साथ सुख-दुःख में देना आदर्श पत्नी का धर्म है।
सब परिस्थिति में भी पवित्रता बनाए रखना आवश्यक है। पवित्र मन का कोई अन्यायी भेद नहीं कर सकता।
कठिन परिस्थितियों में भी धैर्य बनाए रखना। सीता ने हर समय धैर्य बनाए रखा और कभी हिम्मत नहीं हारी।
सीता ने राम पर अटूट प्रेम होते हुए भी स्वाभिमान की रक्षा की और अंत में भूमि में समा गईं।
सीता ने महर्षि भारद्वाज, वाल्मीकि, अत्रि ऋषि जैसे महर्षियों का सदा सम्मान किया। महर्षियों की सेवा करना धर्म समझा।
वाल्मीकि आश्रम में सीता ने लव-कुश को संस्कारित किया। मातृत्व धर्म की रक्षा का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है।
अर्थ: भूमि की रेखा (हल की रेखा)। वे भूमि से उत्पन्न हुईं इसलिए "सीता" नाम मिला।
अर्थ: राजा जनक की पुत्री। मिथिला राजा जनक की बेटी होने के नाते "जानकी" कहा जाता है।
अर्थ: विदेह (मिथिला) की राजकुमारी। मिथिला को विदेह भी कहा जाता था।
अर्थ: मिथिला की राजकुमारी। मैथिली अर्थात मिथिलावासी।
अर्थ: भूमि से उत्पन्न हुई। सीता का जन्म भूमि से हुआ था, इसलिए यह नाम मिला।
अर्थ: राम की प्रिय पत्नी। राम के जीवन की सहचरी, रामप्रिया।
जब भगवान राम, सीता और लक्ष्मण वनवास पर निकले तो सबसे पहले प्रयाग में महर्षि भारद्वाज के आश्रम में रुके।
महर्षि भारद्वाज ने माता सीता को भी आशीर्वाद दिया और उन्हें धर्मपालन व पतिव्रत धर्म के बारे में उपदेश दिए। महर्षि ने सीता को वनवास में धैर्य और साहस बनाए रखने की सलाह दी।
माता सीता ने महर्षि भारद्वाज की शिक्षाओं को हृदय में धारण किया। महर्षि की शिक्षाएं सीता के लिए वनवास और लंका बंधन में धैर्य का आधार बनीं।
माता सीता को आज भी हर नारी का आदर्श माना जाता है। पवित्रता, साहस, पति के प्रति समर्पण और मातृत्व - सीता हर क्षेत्र में आदर्श हैं। "सीता माता", "जानकी", "वैदेही" और "रामप्रिया" के नाम से आज भी पूजनीय हैं।
पवित्र आचरण की प्रतीक और कार्यशीलता में आदर्श नारी
राम-सीता का प्रेम आदर्श पति-पत्नी संबंध का प्रतीक
हर युग में सीता नारी सामर्थ्य और शक्ति की प्रतीक
पवित्रता, साहस और त्याग के मार्ग पर चलकर माता सीता के आदर्श को अपनाएं